उत्तरी प्रदेश में मधुपुर नाम का एक नगर है। वहाँ मधुसेन नाम का एक राजा था। विषय सुख भोगने वाले उस राजा मधुसेन को एक तीन स्तनों वाली कन्या उत्पन्न हुई। तीन स्तनों वाली कन्या की उत्पत्ति सुनकर राजा ने कंचुकियों से कहा–“भाई! यह त्रिस्तनी कन्या को दूर जंगल में ले जाकर छोड़ दो कोई जानने भी न पाये।” यह सुनकर कंचुकियों ने कहा–“महाराज! यह तो मालूम है ही कि तीन स्तनों वाली कन्या अनिष्ट करने वाली होती है, फिर भी ब्राह्मण बुलाकर उससे पूछ लेना चाहिए, जिससे दोनों लोक बने रहें; क्योंकि–
जो बराबर दूसरों से पूछता रहता है, सुनता रहता है और यथार्थ बातें धारण करता रहता है उसकी बुद्धि सूर्य की किरणों से कमलिनी की तरह बराबर बढ़ती रहती है। और भी-
जानकार मनुष्य को सदा पूछते रहना चाहिए। प्राचीन काल में राक्षसराज द्वारा पकड़ा हुआ भी एक ब्राह्मण पूछने के कारण छूट गया।”
सजा ने पूछा–“यह कैसे ?”
कंचुकियों ने कहा-
ब्राह्मण और राक्षसराज
देव! किसी जंगली प्रदेश में चंडकर्मा नाम का एक राक्षस रहता था। एक बार वह जंगल में घूम रहा था कि उसे एक ब्राह्मण मिला। वह उसके कंधे पर कूदकर बैठ गया और बोला–“अरे! आगे-आगे चलो।” ब्राह्मण भी बहुत डर गया, वह उसे कंधे पर लेकर चलने लगा। रास्ते में कमल की पंखुड़ियों के समान कोमल राक्षस के पैरों के तलवे को देखकर ब्राह्मण ने पूछा–“भाई! आपके पैर क्यों इतने कोमल हैं?”
राक्षस बोला–“भाई मैंने व्रत रखा है कि गीले पैरों से भूमि का स्पर्श नहीं करता।” यह सुनकर ब्राह्मण अपने छुटकारा पाने का उपाय सोचता हुआ एक सरोवर के किनारे पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर राक्षस ने कहा–“जब तक मैं स्नान और देवपूजा करके न आऊँ तब तक तुम इस स्थान से कहीं अन्यत्र मत जाना।” यह कहकर राक्षस सरोवर में नहाने चला गया। ब्राह्मण ने सोचा कि यह देवपूजन करने के बाद निश्चय ही मुझे खा जायगा | इसलिए मैं जल्दी से भागूं जिससे वह गीले पैर मेरे पीछे न आ सके ।’ ब्राह्मण ने वैसा ही किया। व्रत टूटने के डर से राक्षस भी उसके पीछे नहीं गया ।
इसलिए सब कहते हैं कि “जानकार आदमी को भी दूसरे से पूछते रहना चाहिए। बड़े राक्षस से भी पकड़े जाने पर सवाल पूछने से ब्राह्मण छूट गया ।”
उसकी बात सुनकर राजा ने ब्राह्मणों को वुलाकर पूछा, “हे ब्राहमणो! मेरे यहां त्रिस्तनी कन्या का जन्म हुआ है । इसकी शांति का कोई उपाय है या नहीं ? ब्राह्मणों ने कहा– देव ! सुनिए–
“मनुष्य के यहां कम अथवा अधिक अंगों वाली जो कन्या पैदा होती है, वह अपने पति और शील का नाश करती है ।
“इनमें से भी अगर तीन स्तनों वाली कन्या अपने पिता की नजर पड़े, तो वह तुरन्त अपने पिता का नाश कर देती है, इसमें संदेह नहीं ।
इसलिए इस लड़की को आपको नहीं देखना चाहिए। अगर कोई इस कन्या के साथ विवाह करे तो उसे इस कन्या को देकर देश से बाहर कर दीजिए । ऐसा करने से आपके दोनों लोक सुधरेंगे ।”
उनकी यह बात सुनकर राजा ने डंके की चोट पर मुनादी करा दी, “लोगो ! इस त्रिस्तनी कन्या के साथ जो कोई ब्याह करेगा, उसे एक लाख सुवर्ण मुद्रा उसी समय मिलेगा और उसे देश भी छोड़ना पड़ेगा।” मुनादी किये हुए बहुत दिन बीत गए, फिर भी उस कन्या को लेने को कोई तैयार न हुआ। वह जवान होने तक छिपे स्थान में रहकर यत्नपूर्वक पल-पुसकर बढ़ने लगी।
उसी नगर में कोई अंधा रहता था। उसका मंथरक नाम का एक कुबड़ा आगे लकड़ी पकड़ने वाला था। उन दोनों ने डुग्गी सुनकर आपस में विचार किया, “भाग्यवश कन्या मिलती हो तो हमें डुग्गी रोकनी चाहिए, जिससे सोना मिले जौर उसके मिलने से हमारी जिंदगी सुख से कटे । उस कन्या के दोष से कहीं मैं मर गया तो भी दरिद्रता से पैदा हुई उस तकलीफ से छुटकारा मिल जायगा। कहा है कि
“लज्जा, स्नेह, वाणी की मिठास, बुद्धि, जवानी, स्त्रियों का साथ, अपनों का प्यार, दुःख की हानि, विलास, धर्म, तन्दुरुस्ती, वृहस्पति जैसी बुद्धि, पवित्रता, और आचार-विचार ये सब बातें, आदमियों का पेट-रूपी गढ़ा जब अन्न से भरा होता हैँ, तभी संभव हैं।”
यह कहकर उस अंधे ने मुनादी करने वाले को रोक दिया और कहा, “मैं उस राजकन्या से विवाह करूंगा, यदि राजा मूझे उसे देगा।” बाद में राज कर्मचारियों ने जाकर राजा से कहा, “देव! किसी अंधे ने मुनादी रोक दी है, इस बारे में क्या करना चाहिए ?” राजा ने कहा –
“अंधा हो, बहरा हो, कोढ़ी हो या चाण्डाल हो, कोई भी हो यदि वह राजकन्या लेना चाहता है, वो उसे एक लाख सुवर्ण मुद्रा के साथ देश निकाला दिया जायेगा।”
राजा ने आज्ञा दे दी। राजपुरुषों ने नदी के किनारे ले जाकर एक लाख सुवर्ण मुद्रा के साथ त्रिस्तनी कन्या का उस अन्धे के साथ विवाह कर दिया। और उसे जलयान (जहाज) पर बैठाकर केवटों से कह दिया–“केवटों! विदेश में ले जाकर इस अंधे, कुबड़े और राजकन्या को किसी नगर में छोड़ देना।”
केवटों ने वैसा ही किया। उन्होंने जहाज में बैठाकर उसे विदेश में ले जाकर एक नगर में पहुँचा दिया। केवटों के दिखाने पर रुपये से उसने एक सुन्दर महल खरीद लिया और तीनों बड़े आराम के साथ वहाँ अपनी जिन्दगी का समय बिताने लगे। केवल अन्धा सदा पलंग पर सोया रहता था। घर का सारा कारबार कुबड़ा करता था। इस तरह उनका समय आराम से कटा चला जा रहा था कि कुछ ही दिनों में कुबड़े के साथ राजकन्या का अनुचित सम्बन्ध स्थापित हो गया। यह ठीक ही कहा गया है कि–
“यदि आग शीतल हो जाय, चन्द्रमा जलाने वाला बन जाय, समुद्र का पानी मीठा हो जाय तब स्त्रियों को सतीत्व हो सकता है।”
कुछ दिन बीतने पर त्रिस्तनी ने मन्थरक से कहा–“हे सुन्दर! यदि किसी तरह यह अन्धा मर जाय तो हम दोनों सुख की जिन्दगी बिताएँ। कहीं से ढूँढ़कर तुम विष ले आओ, उसे देकर मैं इसका काम तमाम कर दूँ और सुखी बनूँ।”
दूसरे दिन घूमते हुए कुबड़े को एक मरा हुआ काला साँप मिला। उसे लेकर वह प्रसन्न मन से घर वापस लौटा और त्रिस्तनी से बोला–“सुन्दरी! यह एक काला साँप मिल गया है। इसे टुकड़े-टुकड़े काटकर खूब अधिक सोंठ-मिर्च डालकर अच्छे स्वाद का बना डालो। उस अंधे को मछली का मांस बताकर इसे खिला दो। इसे खाते ही वह खत्म हो जायगा, क्योंकि उसे मछली का मांस सदा बहुत रुचिकर लगता है।”
यह कहकर मन्थरक बाहर चला गया। त्रिस्तनी ने तुरंत आग जलाई और काले साँप को टुकड़े टुकड़े काटकर उसमें मट्ठा डालकर चढ़ा दिया और घर के दूसरे कामों में व्यस्त होने के कारण अंधे के पास आकर विनय के साथ कहा– आर्य पुत्र आज तुम्हें बहुत अधिक पसन्द आने वाली मछली का मांस मैंने मँगा रखा है, तुम हमेशा उसे पूछा करते थे। उसे मैंने पकाने के लिए आग पर चढ़ा दिया है, मैं जब तक दूसरे कामों को निपटा लूँ तब तक तुम करछी लेकर थोड़ी देर उसे चला दो।”
यह सुनकर अन्धा बहुत खुश हुआ। वह जीभ चाटते हुए तुरन्त पलंग से उठ बैठा और लेकर उसे चलाने लगा। मछली का मांस समझकर कड़ाही में चलाते हुए उस अंधे की आँखों पर छाया हुआ काला परदा साँप की विषैली भाप की गरमी से गलने लगा। उसे तुरन्त बहुत लाभ मालूम होने लगा। फिर तो उसने खूब फैला-फैलाकर आँखों में उसकी भाप ली। इस तरह थोड़ी देर में उसकी आँखें जब एकदम साफ हो गईं तो उसने देखा कि कड़ाही में केवल मट्ठा है और उसमें काले साँप के छोटे-छोटे टुकड़े पक रहे हैं, तब उसने सोचा–अरे! इसने क्यों मुझे मछली का मांस बताया, यह तो काले साँप के टुकड़े हैं। तो मैं इसका अच्छी तरह पता लगा लूँ कि इस त्रिस्तनी का मुझे मारने का यह इरादा है या कुबड़े का। या किसी दूसरे ने तो ऐसा नहीं किया है। इस तरह की बातें सोचता हुआ, वह अपने इरादे को छिपाकर पहले की तरह अन्धा बनकर उसे चलाता रहा। इसी बीच कुबड़ा बाहर से आ गया। उसे किसी का कोई डर तो था नहीं, आने के साथ ही त्रिस्तनी आलिंगन एवं चुम्बनादि करने लगा। उस अन्धे ने कुबड़े की सारी करतूत देख ली, उसे जब समीप में उन्हें मारने का कोई हथियार नहीं दिखा तो वह क्रोध से व्याकुल होकर पहले की तरह अंधा बन कर उन दोनों की शैय्या के पास गया। वहाँ जाकर उसने मजबूती के साथ कुबड़े के दोनों पैरों को पकड़कर अपने शिर के ऊपर घुमाया और घुमाने के बाद त्रिस्तनी की छाती पर उसे जोर से पटक दिया। कुबड़े के मारने से त्रिस्तनी का तीसरा स्तन छाती के भीतर बैठ गया और जोर से ऊपर घुमाने के कारण कूबड़े की टेढ़ी कमर भी सीधी हो गई।
इसी से मैंने कहा कि, ‘अन्धा, कुबड़ा…इत्यादि।’
यह सुनकर सुवर्णसिद्धि ने कहा–“भाई! यह सच है यद्यपि दैव अनुकूल होने पर सर्वत्र कल्याण ही कल्याण होता है, किन्तु फिर भी मनुष्य को सत्पुरुषों का कहना मानना चाहिए। कभी टूटकर किसी से नहीं चलना चाहिए। जो बातें न मानकर टूटकर तुम्हारी तरह व्यवहार करता है, वह निश्चय ही विनाश के गड्ढे में गिरता है। और भी सुनिये — एक ही उदर और अलग कण्ठ वाले, एक दुसरे का फल खाने वाले आपस में मेल न होने के कारण भारण्ड पक्षी की तरह नाश होते हैं।”
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